भारत की पहली महिला उच्च न्यायालय न्यायाधीश अन्ना चांडी: साहस और संघर्ष की कहानी
अन्ना चांडी: एक प्रेरणादायक जीवन

First Woman High Court Judge Anna Chandy
First Woman High Court Judge Anna Chandy
भारत की पहली महिला उच्च न्यायालय न्यायाधीश अन्ना चांडी: जब समाज में महिलाओं की भूमिका सीमित थी और न्यायपालिका में उनकी उपस्थिति कम थी, तब अन्ना चांडी ने अपने अद्वितीय साहस और दृढ़ संकल्प के साथ एक नया इतिहास रचा। उन्होंने न केवल भारत की पहली महिला न्यायाधीश बनकर एक मिसाल कायम की, बल्कि महिलाओं के अधिकारों के लिए भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका जीवन संघर्ष, समर्पण और साहस की कहानी है, जो आज भी प्रेरणा देती है। आइए जानते हैं उनके जीवन के कुछ रोचक पहलुओं के बारे में।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
अन्ना चांडी का जन्म 5 अप्रैल 1905 को त्रावणकोर (वर्तमान केरल) के त्रिवेंद्रम में एक सीरियन क्रिश्चियन परिवार में हुआ। उनके पिता का निधन बचपन में ही हो गया, जिससे उनकी परवरिश मुख्यतः महिलाओं के बीच हुई। उस समय की महारानी सेतु लक्ष्मी बाई ने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा दिया, जिससे अन्ना को उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला।

उन्होंने गवर्नमेंट लॉ कॉलेज, तिरुवनंतपुरम से 1926 में कानून में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की, जिससे वे अपने राज्य में कानून की डिग्री हासिल करने वाली पहली महिला बनीं। इसके बाद, 1929 से उन्होंने बैरिस्टर के रूप में अभ्यास शुरू किया, विशेष रूप से आपराधिक कानून में विशेषज्ञता हासिल की और अपने उत्कृष्ट कार्य के लिए सराहना प्राप्त की।
वैवाहिक जीवन और पारिवारिक समर्थन
अन्ना चांडी का विवाह एक पुलिस अधिकारी, श्री चांडी से हुआ। उनके वैवाहिक जीवन में कई चुनौतियाँ थीं, विशेषकर करियर और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाना। उनके पति, जो स्वयं कानून और न्याय प्रणाली से जुड़े थे, ने उनके करियर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अन्ना ने अपने पहले आपराधिक मामले की तैयारी में अपने पति की सहायता का उल्लेख किया है, जिसमें उन्होंने उन्हें साक्ष्यों की जांच और गवाहों की जिरह के तरीकों में मार्गदर्शन दिया।

हालांकि, उनके करियर की मांगों के कारण, अन्ना और उनके पति को अक्सर अलग-अलग स्थानों पर रहना पड़ा। उनके पति का स्थानांतरण और अन्ना की न्यायिक नियुक्तियाँ उन्हें एक साथ समय बिताने से रोकती थीं। इसके बावजूद, उन्होंने अपने रिश्ते को मजबूत बनाए रखा और एक-दूसरे को करियर में आगे बढ़ने के लिए सहयोग और समर्थन प्रदान किया।
महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष
कानूनी अभ्यास के साथ-साथ, अन्ना चांडी ने महिलाओं के अधिकारों के लिए भी सक्रिय रूप से कार्य किया। उन्होंने 'श्रीमती' नामक एक मलयालम पत्रिका की स्थापना और संपादन किया, जो महिलाओं के अधिकारों और समाज में उनकी स्थिति पर केंद्रित थी। इस पत्रिका के माध्यम से, उन्होंने विधवा पुनर्विवाह, महिलाओं की स्वतंत्रता, और कार्यस्थल पर वेतन भेदभाव जैसे मुद्दों पर चर्चा की। उनके इस प्रयास ने उन्हें 'प्रथम पीढ़ी की नारीवादी' के रूप में स्थापित किया।
अन्ना चांडी की राजनीतिक यात्रा
1931 में, अन्ना चांडी ने त्रावणकोर राज्य की श्रीमूलम पॉपुलर असेंबली के चुनाव में भाग लिया। हालांकि उन्हें विरोधियों और समाचार पत्रों की आलोचना का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और 1932-34 तक विधायक के रूप में सेवा की।
न्यायिक करियर की शुरुआत
1937 में, त्रावणकोर के दीवान सर सी.पी. रामास्वामी अय्यर ने अन्ना चांडी को मुंसिफ (न्यायिक अधिकारी) के रूप में नियुक्त किया, जिससे वे भारत की पहली महिला न्यायाधीश बनीं। 1948 में, उन्हें जिला न्यायाधीश के पद पर पदोन्नत किया गया।
उच्च न्यायालय में नियुक्ति
9 फरवरी, 1959 को, अन्ना चांडी को केरल उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया, जिससे वे भारत की पहली महिला उच्च न्यायालय न्यायाधीश बनीं। उन्होंने इस पद पर 5 अप्रैल 1967 तक सेवा की।
सेवानिवृत्ति और अंतिम वर्ष
उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्ति के बाद, अन्ना चांडी ने भारत के विधि आयोग में सेवा की और 1973 में अपनी लिखी आत्मकथा पुस्तक 'आत्मकथा' के नाम से प्रकाशित की। 20 जुलाई 1996 को, 91 वर्ष की आयु में, उनका निधन हुआ।
अन्ना चांडी का जीवन साहस, समर्पण और नारी सशक्तिकरण का प्रतीक है। उन्होंने समाज में महिलाओं की भूमिका को पुनर्परिभाषित किया और न्यायपालिका में महिलाओं के लिए मार्ग प्रशस्त किया। उनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि संकल्प और दृढ़ता से हम किसी भी बाधा को पार कर सकते हैं और समाज में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं।