डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी: एक महान विचारक और जनसेवक की कहानी
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती: 6 जुलाई का विशेष अवसर
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती पर विशेष (सोशल मीडिया छवि).
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती पर विशेष (सोशल मीडिया छवि).
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती: डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक प्रमुख शिक्षाविद्, विचारक और भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। उनका जीवन राष्ट्रीय एकता, अखंडता और सांस्कृतिक चेतना के प्रति समर्पित था। वे केवल एक राजनेता नहीं, बल्कि भारत के सच्चे सपूत थे। उनकी दूरदर्शिता और प्रतिबद्धता आज भी लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उन्होंने कहा था, “राष्ट्रीय एकता के आधार पर ही सुनहरे भविष्य की नींव रखी जा सकती है।”
जीवन परिचय
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को कोलकाता में हुआ। उनका परिवार धार्मिक था, जिसका प्रभाव उनके जीवन पर स्पष्ट था। उनके पिता, आशुतोष मुखर्जी, कोलकाता विश्वविद्यालय के संस्थापक उपकुलपति थे।
उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की और 1923 में सेनेट के सदस्य बने। 1924 में, अपने पिता की मृत्यु के बाद, उन्होंने कोलकाता उच्च न्यायालय में वकील के रूप में पंजीकरण कराया। 1926 में, वे इंग्लैंड गए और 1927 में बैरिस्टर की परीक्षा पास की।
कुलपति बनने की उपलब्धि
डॉ. मुखर्जी की मेहनत ने उन्हें 33 वर्ष की आयु में कोलकाता विश्वविद्यालय का कुलपति बना दिया। उन्होंने 1938 तक इस पद पर कार्य किया और इस दौरान कई सुधारात्मक कार्य किए। वे 'कोर्ट एंड काउंसिल ऑफ इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बैंगलोर' और इंटर यूनिवर्सिटी बोर्ड के सक्रिय सदस्य भी रहे।
राजनीतिक करियर की शुरुआत
डॉ. मुखर्जी का राजनीतिक सफर कांग्रेस से शुरू हुआ। उन्हें कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में बंगाल विधान परिषद का सदस्य चुना गया। लेकिन जब कांग्रेस ने विधायिका का बहिष्कार करने का निर्णय लिया, तो उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद, स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा और जीत हासिल की।
नेहरू के साथ मतभेद
1943 में, उन्हें अखिल भारतीय हिंदू महासभा का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। स्वतंत्रता के बाद, पंडित नेहरू ने उन्हें अंतरिम सरकार में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री बनाया। लेकिन मतभेद के कारण, उन्होंने 6 अप्रैल 1950 को मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
जनसेवा के प्रति प्रतिबद्धता
डॉ. मुखर्जी जनसेवा के प्रति गहरे प्रतिबद्ध थे। उन्होंने हिंदू महासभा छोड़कर संघ की राजनीतिक शाखा बनाने का निर्णय लिया। 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ का गठन किया गया, जिसमें उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
लोकसभा चुनाव में सफलता
1951-52 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ के तीन प्रत्याशियों ने जीत हासिल की, जिनमें डॉ. मुखर्जी भी शामिल थे। इसके बाद, उन्होंने नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना की और कश्मीर के विलय के लिए संघर्ष किया।
जम्मू-कश्मीर यात्रा और बलिदान
1953 में, उन्होंने बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर की यात्रा की। उन्हें 11 मई 1953 को गिरफ्तार किया गया और 23 जून 1953 को उनकी मृत्यु हो गई। उनकी माता ने कहा, “मेरे पुत्र की मृत्यु भारत माता के पुत्र की मृत्यु है।”
धार्मिक शिक्षाओं का महत्व
डॉ. मुखर्जी का मानना था कि राष्ट्रीय प्रगति धार्मिक शिक्षाओं के पालन से ही संभव है। उन्होंने कहा कि जो राष्ट्र अपनी पुरानी उपलब्धियों से प्रेरणा नहीं लेता, वह अपने भविष्य को नहीं बना सकता।
केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह का दृष्टिकोण
डॉ. मुखर्जी का जीवन राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक समर्पण का प्रतीक था। उनके बलिदान के लिए हर भारतीय ऋणी है।
भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की टिप्पणी
डॉ. मुखर्जी का नारा “एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे” केवल एक उद्घोष नहीं, बल्कि राष्ट्र की एकता के लिए उनका संकल्प था। आज अनुच्छेद-370 का समाप्त होना उनके बलिदान को श्रद्धांजलि है।
निष्कर्ष
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जीवन सिद्धांतों के लिए था। उनके विचार आज भी राष्ट्रवाद की सच्ची अभिव्यक्ति हैं। उनका संकल्प आज भी भारत के नवनिर्माण में महत्वपूर्ण है।
.png)