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देवशयनी एकादशी: जानें इस पावन दिन की कथा और महत्व

देवशयनी एकादशी हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण दिन है, जो आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। यह दिन भगवान विष्णु की योगनिद्रा की शुरुआत का प्रतीक है और चातुर्मास की अवधि का आरंभ करता है। इस दिन भक्त उपवास रखते हैं और विशेष पूजा-अर्चना करते हैं। इस लेख में देवशयनी एकादशी की पौराणिक कथा, व्रत विधि और इसके आध्यात्मिक महत्व के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है। जानें इस पावन दिन की विशेषताएँ और धार्मिक अनुशासन के संकेत।
 
देवशयनी एकादशी: जानें इस पावन दिन की कथा और महत्व

देवशयनी एकादशी की महत्ता

Devshayani Ekadashi Katha

देवशयनी एकादशी: हिंदू धर्म में एकादशी व्रत का विशेष महत्व है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी, जिसे देवशयनी या हरिशयनी एकादशी कहा जाता है, को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। यह दिन केवल उपवास का नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साधना और धार्मिक अनुशासन की शुरुआत का प्रतीक है। इसी दिन से चातुर्मास की अवधि शुरू होती है, जब भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में जाते हैं। इस समय सृष्टि का संचालन देवी-देवताओं और संतों को सौंपा जाता है। यह एकादशी भक्तों के लिए आत्मचिंतन और संयम का समय है। आइए जानते हैं इस दिन की पौराणिक कथा और इसके पीछे के आध्यात्मिक संकेत।


देवशयनी एकादशी की पौराणिक कथा

कथा का आरंभ

देवशयनी एकादशी: जानें इस पावन दिन की कथा और महत्व

शंखचूड़, एक शक्तिशाली असुर, दानवों के राजा दंभ का पुत्र था। उसने कठोर तपस्या कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और अजेयता का वरदान प्राप्त किया। इस वरदान के कारण वह देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। देवता भगवान विष्णु के पास गए।

भगवान विष्णु ने भगवान शिव से सहायता मांगी। शिव और शंखचूड़ के बीच युद्ध हुआ, लेकिन शंखचूड़ को हराना कठिन था। भगवान विष्णु ने एक योजना बनाई और ब्राह्मण का रूप धारण कर शंखचूड़ से उसका कवच मांगा। इसके बाद उन्होंने उसकी पत्नी तुलसी का सतीत्व भी भंग कर दिया। जैसे ही ये कवच टूटे, शंखचूड़ की शक्ति कम हो गई। अंततः भगवान शिव ने उसे समाप्त कर दिया और देवताओं को स्वर्ग वापस मिला।


देवशयनी एकादशी और चातुर्मास

चातुर्मास का महत्व

देवशयनी एकादशी: जानें इस पावन दिन की कथा और महत्व

देवशयनी एकादशी से भगवान विष्णु योगनिद्रा में जाते हैं, जो चार महीने तक चलती है। इस अवधि को चातुर्मास कहा जाता है, जिसमें संयम, साधना और धार्मिक अनुशासन का पालन किया जाता है। इस समय विवाह और अन्य मांगलिक कार्य वर्जित होते हैं, जबकि पूजा-पाठ का विशेष महत्व होता है।

स्कंद पुराण और पद्म पुराण में चातुर्मास के नियमों का उल्लेख है, जो इस परंपरा की गहराई को दर्शाते हैं।


राजा मांधाता की कथा

राजा मांधाता का प्रसंग

देवशयनी एकादशी की एक और कथा राजा मांधाता से जुड़ी है। उनके राज्य में तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई, जिससे अकाल पड़ा। प्रजा ने राजा से सहायता मांगी। राजा ने ऋषि अंगिरा के पास जाकर आषाढ़ शुक्ल एकादशी का व्रत किया, जिससे राज्य में पुनः वर्षा हुई।


देवशयनी एकादशी व्रत विधि

व्रत की विधि और महत्व

देवशयनी एकादशी का व्रत भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी को समर्पित है। इस दिन भक्त स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनते हैं और व्रत का संकल्प लेते हैं। दिनभर उपवास, विष्णु सहस्रनाम का पाठ, तुलसी पूजन, दीपदान और आरती का आयोजन किया जाता है। रातभर जागरण और भजन-कीर्तन से व्रत का पुण्यफल बढ़ता है। द्वादशी को व्रत का पारण फलाहार या अन्नदान के साथ किया जाता है।


तुलसी विवाह और देवउठनी एकादशी

तुलसी विवाह का महत्व

देवशयनी एकादशी: जानें इस पावन दिन की कथा और महत्व

देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक का समय आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है। इस दौरान तुलसी विवाह का आयोजन होता है, जिसमें तुलसी का विवाह शालिग्राम से किया जाता है। यह शुभ कार्यों की शुरुआत का प्रतीक है।


चातुर्मास का आध्यात्मिक महत्व

आध्यात्मिक दृष्टि से चातुर्मास

देवशयनी एकादशी से चातुर्मास की अवधि धार्मिक, प्राकृतिक और सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह समय भगवान विष्णु की पूजा और साधना के लिए आदर्श है, जिससे जीवन में सुख और समृद्धि आती है। प्राकृतिक दृष्टि से यह समय संयमित जीवनशैली और सात्विक आहार का पालन करने का है।


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