महिलाओं के अधिकारों की आवाज: अमृता प्रीतम की विरासत और उनके विचार
महिलाओं के प्रति सोच में बदलाव की आवश्यकता
नई दिल्ली, 30 अक्टूबर। 21वीं सदी में जहां तकनीक और अंतरिक्ष यात्रा की बातें हो रही हैं, वहीं महिलाओं को आज भी उनके कपड़ों और शारीरिक रूप से जज किया जाता है। पुरुषों की सोच में कोई खास बदलाव नहीं आया है, और महिलाओं पर अश्लील टिप्पणियां अब आम हो गई हैं। यदि कोई महिला किसी प्रेम प्रसंग को ठुकरा देती है, तो उसके खिलाफ बलात्कार या एसिड अटैक जैसी घटनाएं घटित हो जाती हैं।
महिलाओं को छूने और उनके शरीर के साथ खेलने की कोशिशें आज भी जारी हैं। पुरुष आज भी महिलाओं को वह स्वतंत्रता नहीं देना चाहते, जिसके वे हकदार हैं।
महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों को देखते हुए, प्रसिद्ध पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम ने कहा था, "सभ्यता का युग तब आएगा, जब औरत की मर्जी के बिना कोई उसके जिस्म को हाथ नहीं लगाएगा।" हम उन्हें उनकी पुण्यतिथि 31 अक्टूबर को याद कर रहे हैं।
अमृता प्रीतम पंजाबी साहित्य की एक प्रमुख लेखिका थीं, जिन्होंने उपन्यास, कविता, निबंध और कहानियों का लेखन किया। वह साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली पहली महिला थीं।
अमृता प्रीतम, जो 31 अगस्त 1919 को गुजरांवाला (पाकिस्तान) में जन्मी थीं, ने न केवल पंजाबी बल्कि हिंदी साहित्य में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। वह रोमांस, दर्द, विभाजन की त्रासदी और नारीवाद को अपनी कविताओं में बखूबी पिरोती थीं।
11 साल की उम्र में मां को खोने के बाद उन्होंने परिवार की जिम्मेदारियां संभालीं। 16 साल की उम्र में प्रीतम सिंह से विवाह के बाद उन्होंने अपना नाम अमृत कौर से अमृता प्रीतम रखा। तलाक के बाद भी उन्होंने यही नाम रखा।
बंटवारे के दौरान महिलाओं पर हुए अत्याचारों को देखकर उन्होंने लिखा, ‘अज्ज आखां वारिस शाह नू, कित्थों क़ब्रां विचों बोल।’ यह कविता आज भी पंजाबी साहित्य की एक महत्वपूर्ण रचना मानी जाती है।
साहिर लुधियानवी के साथ अधूरी मोहब्बत पर उन्होंने लिखा था—"यह जिस्म खत्म होता है तो सब कुछ खत्म हो जाता है पर यादों के धागे कायनात के लम्हों की तरह होते हैं। मैं उन लम्हों को चुनूंगी, मैं तुझे फिर मिलूंगी।"
अमृता प्रीतम के शब्द बताते हैं कि शरीर समाप्त हो जाएगा, लेकिन यादें कभी नहीं मरतीं। वे अनंत और अमर होती हैं।
अमृता प्रीतम को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले, जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार शामिल हैं। उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। 31 अक्टूबर 2005 को, लंबी बीमारी के बाद, उनका निधन दिल्ली में 86 वर्ष की आयु में हुआ।
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