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क्या आप जानते हैं 25 जून 1975 का दिन भारतीय लोकतंत्र के लिए क्यों है काला दिन?

25 जून 1975 का दिन भारतीय लोकतंत्र के लिए एक काला अध्याय है। इस दिन आपातकाल की घोषणा ने देश को कई संकटों में डाल दिया। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में लागू इस आपातकाल ने न केवल राजनीतिक अधिकारों का हनन किया, बल्कि आम जनता के जीवन को भी प्रभावित किया। जानें इस दौर की घटनाओं, जेपी के आंदोलन, और संजय गांधी की भूमिका के बारे में। यह कहानी उन लाखों लोगों की है, जिन्होंने अत्याचार सहा और लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष किया।
 
क्या आप जानते हैं 25 जून 1975 का दिन भारतीय लोकतंत्र के लिए क्यों है काला दिन?

भारतीय लोकतंत्र का काला दिन

लोकतंत्र के इतिहास में काला दिन (सोशल मीडिया से)

लोकतंत्र के इतिहास में काला दिन (सोशल मीडिया से)

भारतीय लोकतंत्र का काला दिन: 25 जून 1975 की रात को भारत के इतिहास में एक ऐसा अध्याय जुड़ा, जिसने लोकतंत्र की नींव को हिला दिया। उस रात, जब देश सो रहा था, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल की घोषणा की। यह आपातकाल 21 महीनों तक, यानी 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक, चला। इसे भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला दौर माना जाता है।


भारत का संकटग्रस्त दौर

आपातकाल की पृष्ठभूमि को समझने के लिए हमें 1970 के दशक के भारत पर ध्यान देना होगा। यह वह समय था जब देश कई समस्याओं का सामना कर रहा था। आर्थिक संकट गहरा रहा था, महंगाई ने आम आदमी का जीना मुश्किल कर दिया था। खाद्य वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे थे और बेरोजगारी अपने चरम पर थी। 1973 में वैश्विक तेल संकट ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। लोग सड़कों पर उतरने लगे। 1974 में गुजरात में छात्रों ने महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ नवनिर्माण आंदोलन शुरू किया, जो इतना बड़ा हो गया कि कांग्रेस सरकार को इस्तीफा देना पड़ा। बिहार में भी जयप्रकाश नारायण, जिन्हें जेपी के नाम से जाना जाता है, ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की अगुवाई की।


इंदिरा गांधी और न्यायालय का निर्णय

उस समय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। 1971 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने रायबरेली से शानदार जीत हासिल की थी। उनका नारा 'गरीबी हटाओ' लोगों के दिलों में बसा था। लेकिन उनकी जीत को उनके प्रतिद्वंद्वी राज नारायण ने अदालत में चुनौती दी। 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावी गड़बड़ी का दोषी ठहराया। अदालत ने उनकी संसद सदस्यता रद्द कर दी और छह साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी। यह निर्णय इंदिरा के लिए एक बड़ा झटका था। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर आंशिक रोक लगाई, जिससे इंदिरा प्रधानमंत्री बनी रहीं, लेकिन वे संसद की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले सकती थीं।


जेपी का आंदोलन और सरकार का भय

इसी बीच जेपी के नेतृत्व में विपक्षी दलों ने एक बड़ा आंदोलन शुरू किया। 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी ने एक विशाल रैली को संबोधित किया। उन्होंने इंदिरा गांधी से इस्तीफे की मांग की और सेना व पुलिस से गैर-कानूनी आदेशों का पालन न करने की अपील की। उनकी आवाज में जनता की नाराजगी थी। इस रैली ने सरकार को डरा दिया। इंदिरा के करीबी सलाहकार सिद्धार्थ शंकर राय ने उन्हें 'आंतरिक आपातकाल' लगाने की सलाह दी। राष्ट्रपति के लिए एक पत्र तैयार किया गया, जिसमें कहा गया कि देश की सुरक्षा को 'आंतरिक अशांति' से खतरा है। रात 11:55 बजे राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इस पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए, और देश में आपातकाल लागू हो गया।


आपातकाल की सुबह: देश का सदमा

26 जून की सुबह देशवासियों को ऑल इंडिया रेडियो पर इंदिरा गांधी का संदेश सुनाई दिया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति ने आपातकाल की घोषणा की है और इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। लेकिन यह सुनकर देश हैरान रह गया। रातों-रात बिजली काटकर दिल्ली के कई अखबारों के दफ्तर बंद कर दिए गए। सुबह कोई अखबार नहीं छपा। टाइम्स ऑफ इंडिया ने 'लोकतंत्र की मृत्यु' का शोक संदेश छापा। इंडियन एक्सप्रेस ने संपादकीय खाली छोड़ा, और फाइनेंशियल एक्सप्रेस ने रवींद्रनाथ टैगोर की कविता 'जहां मन बिना भय के हो' छापी। यह उस दौर की शुरुआत थी जब प्रेस की आजादी को कुचल दिया गया।


तानाशाही का दौर: अधिकारों का हनन

आपातकाल लागू होते ही संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत सरकार को अपार शक्तियां मिल गईं। मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए। बोलने की आजादी छीन ली गई। लोग बिना मुकदमा चलाए जेल में डाल दिए गए। विपक्षी नेताओं जैसे जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और जॉर्ज फर्नांडिस को रातों-रात गिरफ्तार कर लिया गया। करीब एक लाख से ज्यादा लोग जेल में डाले गए। कई कार्यकर्ता भूमिगत हो गए और गुप्त रूप से आंदोलन चलाते रहे। गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया। दिल्ली में कई झुग्गी-झोपड़ियों को तोड़ दिया गया, जिससे हजारों लोग बेघर हो गए।


संजय गांधी की भूमिका

इस दौर में इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी का नाम सबसे ज्यादा चर्चा में रहा। संजय उस समय कोई आधिकारिक पद पर नहीं थे, लेकिन उनकी ताकत किसी मंत्र से कम नहीं थी। उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण के लिए एक जबरदस्ती नसबंदी अभियान शुरू किया। इस अभियान में लाखों लोगों की जबरन नसबंदी कर दी गई। खासकर गरीब और अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाया गया। यह अभियान इतना क्रूर था कि लोग डर से गांव छोड़कर भागने लगे। कुछ जगहों पर नसबंदी के लिए लोगों को पकड़कर ले जाया गया।


मानवाधिकारों का उल्लंघन

आपातकाल के दौरान कई मानवाधिकार उल्लंघनों की खबरें सामने आईं। लोग बिना वजह जेल में थे। पुलिस ने बिना वारंट गिरफ्तारियां कीं। कुछ लोग जेलों में गायब हो गए। संजय गांधी के करीबी नेता जैसे हरियाणा के मंत्री बंसी लाल पर भी अत्याचार के आरोप लगे। संजय ने दिल्ली को 'सुंदर' बनाने के नाम पर तुर्कमन गेट पर कई बस्तियों को उजाड़ दिया। इन बस्तियों में गरीब मजदूर रहते थे, जो रातों-रात बेघर हो गए। उनकी कहानियां आज भी उस दौर की क्रूरता की गवाही देती हैं।


प्रेस पर सेंसरशिप

आपातकाल का एक और काला पहलू था प्रेस सेंसरशिप। हर खबर को सूचना और प्रसारण मंत्रालय की मंजूरी लेनी पड़ती थी। कई पत्रकारों को जेल में डाला गया। कुछ अखबारों ने सेंसरशिप का विरोध किया, लेकिन ज्यादातर चुप रहे। लालकृष्ण आडवाणी ने बाद में कहा कि प्रेस से झुकने को कहा गया था, लेकिन वे रेंगने लगे। इस दौर में कुछ लोग आपातकाल के समर्थक भी थे। उद्योगपति जे आर डी टाटा और समाज सुधारक विनोबा भावे ने इसे अनुशासन का समय बताया। लेकिन ज्यादातर लोग इसे तानाशाही मानते थे।


जनता का डर और छिपा प्रतिरोध

आपातकाल का असर सिर्फ सियासत तक नहीं था। आम जिंदगी भी बदल गई थी। लोग डर के साए में जी रहे थे। पड़ोसी पर भरोसा करना मुश्किल था। कोई भी बात जेल की वजह बन सकती थी। फिर भी कुछ लोग चुपके से आंदोलन चलाते रहे। भूमिगत कार्यकर्ताओं ने पर्चे बांटे और रेडियो के जरिए लोगों को सच बताया। लंदन से चलने वाले बीबीसी के हिंदी प्रसारण ने भी लोगों को जागरूक रखा। कुछ लोग रातों-रात दीवारों पर 'आपातकाल हटाओ' जैसे नारे लिख देते थे। यह छोटे-छोटे कदम थे, जो जनता के गुस्से को जिंदा रख रहे थे।


आपातकाल का अंत और जनता की जीत

18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने अचानक चुनाव की घोषणा कर दी। शायद उन्हें अपनी जीत का यकीन था। 21 मार्च 1977 को आपातकाल आधिकारिक तौर पर खत्म कर दिया गया। लेकिन जनता का गुस्सा फट पड़ा। विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई और जेपी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा। मार्च 1977 के चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई। इंदिरा और संजय गांधी अपनी-अपनी सीट हार गए। जनता पार्टी की जीत हुई, और मोरारजी देसाई देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने।


आपातकाल के बाद: सबक और बदलाव

आपातकाल के बाद संविधान में कई बदलाव किए गए ताकि भविष्य में ऐसा न हो। 44वें संशोधन में अनुच्छेद 352 में 'आंतरिक अशांति' की जगह 'सशस्त्र विद्रोह' शब्द जोड़ा गया। यह सुनिश्चित किया गया कि मौलिक अधिकारों को आसानी से न छीना जाए। आपातकाल ने भारत को कई सबक सिखाए। एक तरफ यह दिखाया कि लोकतंत्र कितना नाजुक हो सकता है। दूसरी तरफ यह भी बताया कि जनता की ताकत के सामने कोई तानाशाही टिक नहीं सकती।

आपातकाल की कहानी सिर्फ सियासत की नहीं। यह उन लाखों लोगों की कहानी है, जो जेल गए, जिन्होंने अत्याचार सहे और जिन्होंने चुपके से लोकतंत्र की लौ को जलाए रखा। यह उन पत्रकारों की कहानी है, जिन्होंने सेंसरशिप के बावजूद सच को सामने रखने की कोशिश की। यह उन परिवारों की कहानी है, जो अपने लोगों के लिए तरसते रहे। 25 जून का वह दिन आज भी हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी हम सबकी है।


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