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क्या हंसी और मुस्कान अब हमारी जिंदगी से गायब हो गई हैं?

क्या हंसी और मुस्कान अब हमारी जिंदगी से गायब हो गई हैं? इस लेख में हम हंसी के महत्व और उसके लुप्त होने के कारणों पर चर्चा करेंगे। क्या हम अपनी जिंदगी में हंसी को भूलते जा रहे हैं? जानिए कैसे तनाव और गंभीरता ने हमारे जीवन में हंसी को पीछे छोड़ दिया है। क्या हम इसे फिर से अपने जीवन में ला सकते हैं?
 

हंसी और मुस्कान का महत्व

क्या हंसी और मुस्कान अब हमारी जिंदगी से गायब हो गई हैं?

Importance of Smiling and Laughing

Importance of Smiling and Laughing

हंसी और मुस्कान का महत्व: कुछ घटनाएं हमें सोचने पर मजबूर कर देती हैं, हमें अपने चारों ओर के मानव व्यवहार और भावनाओं पर ध्यान देना पड़ता है। हाल ही में कुछ ऐसे अनुभव हुए जो हंसी-मजाक से जुड़े थे। ये घटनाएं अनजानों के साथ मुस्कुराते हुए और हंसते हुए मिलने से संबंधित थीं।

क्या यह कोई बड़ी बात है? शायद नहीं। ये घटनाएं भले ही साधारण लगें, लेकिन इन्होंने एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। कारण यह है कि अनजानों के प्रति बेसाख्ता मुस्कान और मजाकिया व्यवहार ने लोगों की प्रतिक्रिया को चौंका दिया। लोग हैरान थे कि कोई अजनबी उनसे हंसकर क्यों मिल रहा है। उनके मन में आशंका थी कि इसके पीछे कोई बुरी मंशा या धोखा हो सकता है। यह असामान्य था। यदि कोई गंभीरता से पेश आता है, तो वह सामान्य लगता है।

क्या हंसी और मुस्कान अब हमारी जिंदगी से गायब हो गई हैं?

हालांकि, यह सोचने पर मजबूर करता है। गहराई से विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि हंसना और मुस्कुराना अब अच्छे और स्वाभाविक भावनाओं में नहीं गिना जाता। ये अब पागलपन, धोखा या हल्केपन का प्रतीक बन गए हैं। असली भावनाएं गुस्सा, तनाव और गंभीरता में हैं। यही कारण है कि जब आप अपने चारों ओर देखें, तो यही नज़ारा दिखाई देगा।

अपने घर में ही सोचिए। क्या अब हंसी-मजाक का कोई स्थान है? याद कीजिए, आपके परिवार में कब खुलकर हंसी-मजाक हुआ था? शायद आपको याद नहीं आएगा। परिवार के सदस्यों के बीच हंसी-ठिठोली कब हुई थी, यह भी याद नहीं आएगा।

अपने पड़ोस में जाइए। क्या किसी घर से हंसी की आवाजें सुनाई देती हैं? लड़ाई-झगड़े की आवाजें तो सुनाई देंगी, लेकिन हंसी गायब है। दफ्तर में भी यही हाल है। लोग आपस में बात नहीं करते, हंसी तो दूर की बात है। सब मशीनों की तरह काम में लगे हैं, चेहरों पर मुस्कान भी खो गई है। यात्रा के दौरान भी बसों और ट्रेनों में शोर तो सुनाई देगा, लेकिन हंसी की आवाजें कहीं नहीं मिलेंगी।

क्या हंसी और मुस्कान अब हमारी जिंदगी से गायब हो गई हैं?

पार्कों में भी कुछ लोग हंसी की एक्सरसाइज करते मिलेंगे, लेकिन वह भी अब एक दवा बन गई है। वेंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार, रोजाना 10 से 15 मिनट की हंसी से लगभग 40 कैलोरी बर्न की जा सकती है। हंसी तनाव हार्मोन कोर्टिसोल को कम करती है, जिससे मानसिक तनाव में राहत मिलती है। यह प्रतिरक्षा कोशिकाओं और संक्रमण से लड़ने वाले एंटीबॉडी की संख्या बढ़ाती है। हंसी रक्त वाहिकाओं के कार्य में सुधार करती है और रक्त प्रवाह को बढ़ाती है। हृदय रोगों का जोखिम कम होता है। हंसी मस्तिष्क में एंडोर्फिन और डोपामिन जैसे 'फील-गुड' रसायनों का स्राव बढ़ाती है, जिससे मूड में सुधार होता है। हंसी लोगों को एक-दूसरे के करीब लाती है और सामाजिक बंधनों को मजबूत करती है। अनुसंधानों से पता चला है कि जब हम किसी को हंसते हुए देखते हैं, तो हमारा मस्तिष्क भी हंसी के लिए तैयार हो जाता है। हंसी और इसके प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन 'जेलोटोलॉजी' कहलाता है।

लेकिन इसे नियमित करने के बजाय, हम इसे दवा की तरह ले रहे हैं। दवा केवल मजबूरी में ली जाती है। हंसी अब बची नहीं है। टीवी और यूट्यूब पर स्टैंडअप कॉमेडी भी अब मशीन जैसी हंसी है। ऐसी हंसी में आंसू तो होते हैं, लेकिन आंखों में पानी नहीं होता। हंसी अब जबरदस्ती की, प्लास्टिक जैसी हो गई है।

क्या हंसी और मुस्कान अब हमारी जिंदगी से गायब हो गई हैं?

हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं? अब बसों और ट्रेनों में कोई चुटकुलों की किताबें नहीं बेचता। अब ऐसी किताबें भी नहीं हैं। हास्य और व्यंग्य के नए रचनाकार भी नहीं हैं, जिनके नाम याद किए जाएं।

दोस्तों के बीच या परिवार की बैठकों में चुटकुले और मजाक की जगह नहीं रही है। यह सब अब भुला दिया गया है। पहली अप्रैल आती है और चली जाती है। अप्रैल फूल अब रस्मी रह गया है। लोग इसे भूल चुके हैं। बच्चों में भी इसकी कोई अहमियत नहीं रह गई है। पहले यह एक दिन होता था, जब बेवकूफी में भी मजा आता था। अब वह दिन भी खो गया है।

होली भी आती है और गुजर जाती है। पहले होली के टाइटल एक विशेष आइटम होते थे। दफ्तरों से लेकर स्कूलों और कॉलेजों में टाइटल बनाने की कला होती थी। अब इन सबकी कोई पूछ नहीं है। टाइटल जैसी कोई चीज अब बहुतों को पता भी नहीं है। शायद यह बेहतर है कि नहीं पता, नहीं तो आज के समय में कई केस दर्ज हो जाते।

याद कीजिए, किसी समय में फिल्में कॉमेडियन के दम पर चलती थीं। बड़े-बड़े हीरो महमूद जैसे कॉमेडियन के सामने बौने लगते थे। अब न कॉमेडी फिल्में हैं और न ही कोई कॉमेडियन। हंसाना अब घाटे का धंधा बन गया है।

सच्चाई यह है कि हंसी, मजाक और तफरी अब विलुप्त होते जा रहे हैं। जहां लोग मिलने-जुलने में भी विरक्ति महसूस कर रहे हैं, वहां हंसी-मजाक की बात ही क्या। जब रिश्ते टूटने की कगार पर हैं, तब तफरी की बात कैसे की जा सकती है? तनाव हर चेहरे पर झलकता है, मुस्कानें अब मशीनी और व्यावसायिक हो गई हैं। मजाक अब गंभीरता से लिया जाने लगा है। हंसी अब विद्रूप और कटाक्ष का माध्यम बन गई है।

शायद हमारी जिंदगी खुद एक कॉमेडी बन गई है या हमने इसे ऐसा बना लिया है कि जिसमें दूसरी किस्म की कॉमेडी की जगह नहीं है। क्या इसकी वजह पैसा कमाने की धुन है? रिश्तों में दरार? समाज में हिंसा? प्रदूषित वातावरण? कोरोना? वैक्सीन? बीमारियां? सामाजिक हालात? कुछ तो होगा। या सब कुछ होगा।

बड़ी बात यह है कि खोई हुई हंसी, बिसरा हुआ मजाक और लापता कॉमेडी पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। ये अब गैर जरूरी हो गए हैं। क्या आपको लगता है कि कोई इन्हें याद कर रहा है? क्या आप इन्हें याद करते हैं? अगर नहीं करते, तो अपने दिल में झांकिए और देखिए कि सब कहाँ खो गया है। सोचिए कि हंसना और मुस्कुराना अब क्यों एक दोष माना जाने लगा है।

(लेखक पत्रकार हैं।)


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