दुर्गाबाई देशमुख: एक स्वतंत्रता सेनानी की प्रेरणादायक कहानी
दुर्गाबाई देशमुख का परिचय

भारतीय स्वतंत्रता सेनानी दुर्गाबाई देशमुख की जीवनी
स्वतंत्रता सेनानी दुर्गाबाई देशमुख: भारत के स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक सुधार आंदोलनों में जिन महिलाओं का नाम गर्व से लिया जाता है, उनमें दुर्गाबाई देशमुख का नाम प्रमुखता से शामिल है। वे एक स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, शिक्षाविद और संविधान सभा की सदस्य थीं, जिन्होंने न केवल स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भाग लिया, बल्कि स्वतंत्र भारत के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका जीवन समाज सेवा, नारी सशक्तिकरण और शिक्षा के क्षेत्र में प्रेरणा का स्रोत है।
दुर्गाबाई का जन्म 15 जुलाई 1909 को आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी जिले में एक तेलुगु ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम श्री सी. वी. नरसिंह राव और माता का नाम कृष्णा वेंकटरत्नम्मा था। परिवार की आर्थिक स्थिति सामान्य थी, लेकिन शिक्षा और सामाजिक जागरूकता के प्रति उनकी गहरी आस्था थी।
दुर्गाबाई ने 10 वर्ष की आयु में काकीनाडा में महिलाओं के लिए हिंदी पाठशाला की स्थापना की, जो उनके माता-पिता के सामाजिक कार्यों और गांधी जी के विचारों से प्रेरित थी। उन्होंने गांधी जी के आदर्शों का पालन करते हुए खादी पहनना शुरू किया और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का बहिष्कार किया।

दुर्गाबाई ने अपनी माँ के साथ 500 से अधिक महिलाओं को हिंदी पढ़ाने का कार्य किया और उन्हें स्वयं सेविका के रूप में तैयार किया। कहा जाता है कि उस समय फ्रॉक पहने इस छोटी मास्टरनी को देखकर गांधी जी के सहयोगी जमनालाल बजाज हैरान रह गए थे। महात्मा गांधी ने जब दुर्गाबाई की पाठशाला का निरीक्षण किया, तब उनकी आयु केवल 12 वर्ष थी।
गांधी जी से पहली मुलाकात:
जब दुर्गाबाई को पता चला कि गांधी जी एक सभा में आने वाले हैं, तो उन्होंने तय किया कि वे वहां देवदासी प्रथा और बुर्का प्रथा की शिकार महिलाओं को गांधी जी से मिलवाएंगी। उनका उद्देश्य था कि गांधी जी इन महिलाओं को प्रेरित करें।

गांधी जी ने सभा में महिलाओं के अधिकारों और सामाजिक कुप्रथाओं के खिलाफ भाषण दिया। दुर्गाबाई ने उनका संदेश तेलुगु में अनुवाद किया, जिससे महिलाएं भावुक हो गईं और उन्होंने अपने गहने गांधी जी के चरणों में रख दिए। इस सभा में एकत्रित राशि ₹25,000 थी, जो उस समय के लिए बहुत बड़ी थी।
क्रांतिकारी गतिविधियों में भागीदारी
दुर्गाबाई ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई और स्वदेशी आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। उन्होंने अपने सभी गहने गांधी जी को दान कर दिए और नमक सत्याग्रह के दौरान वेल्लोर जेल में बंद की गईं। जेल में महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय थी।

उन्होंने जेल में महिलाओं को शिक्षित करने और आत्मनिर्भर बनाने का निर्णय लिया। 1930 से 1933 के बीच उन्हें तीन बार जेल भेजा गया।
शिक्षा में भेदभाव का सामना
जब दुर्गाबाई काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बी.ए. करने गईं, तो पंडित मदन मोहन मालवीय ने उनका आवेदन यह कहकर ठुकरा दिया कि “राजनीति विज्ञान केवल पुरुषों के लिए है।”
आंध्र विश्वविद्यालय में नया प्रयास
उन्होंने आंध्र विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए आवेदन किया, लेकिन वहां हॉस्टल की कमी बताई गई। दुर्गाबाई ने स्थानीय अख़बारों में विज्ञापन दिया कि यदि 10 लड़कियां उनके साथ मिल जाएं, तो वे एक गर्ल्स हॉस्टल की स्थापना करेंगी। इस तरह उन्होंने खुद हॉस्टल स्थापित किया और दूसरों को भी पढ़ने का अवसर प्रदान किया।
अकादमिक सफलता
1939 में उन्होंने बी.ए. (ऑनर्स) में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त किया। उन्हें टाटा स्कॉलरशिप मिली, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण उनकी योजना रुक गई। इसके बाद उन्होंने मद्रास लॉ कॉलेज से वकालत की डिग्री प्राप्त की।

महत्वपूर्ण संस्थाएं
दुर्गाबाई ने कई महिला-केंद्रित संस्थाओं की स्थापना की, जिनका उद्देश्य महिलाओं की शिक्षा और आत्मनिर्भरता था। इनमें शामिल हैं:
आंध्र महिला सभा
अखिल भारतीय महिला परिषद
नारी रक्षा समिति
नारी निकेतन
बालिका हिंदी पाठशाला की स्थापना
महज 14 वर्ष की आयु में, उन्होंने एक विद्यालय की स्थापना की, जहां महिलाओं को हिंदी, चरखा चलाना, और बुनाई सिखाई जाती थी।
संविधान निर्माण में योगदान
दुर्गाबाई देशमुख संविधान सभा की गिनी-चुनी महिला सदस्यों में से एक थीं। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों और सामाजिक सुधारों पर विशेष ध्यान दिया।
व्यक्तिगत जीवन
दुर्गाबाई का पहला विवाह टी. सुब्बा राव से हुआ, जो एक स्वतंत्रता सेनानी थे। उनके निधन के बाद, दुर्गाबाई ने उनकी दूसरी पत्नी मायम्मा को भी आत्मनिर्भर बनाया। 1953 में, उन्होंने सी.डी. देशमुख से विवाह किया, जो भारतीय रिज़र्व बैंक के पहले भारतीय गवर्नर थे।
पुरस्कार और सम्मान
दुर्गाबाई के योगदान को भारत सरकार और विभिन्न संस्थाओं द्वारा सराहा गया। उन्हें 1975 में “पद्मविभूषण” से सम्मानित किया गया।
अंतरराष्ट्रीय पहचान
उनकी सेवाओं के कारण उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ और यूनेस्को से आमंत्रित किया गया। उन्होंने भारत की ओर से महिला अधिकारों और शिक्षा नीति पर कई बार प्रस्ताव प्रस्तुत किए।
दुर्गाबाई देशमुख का निधन 9 मई, 1981 को हुआ। उनका जीवन एक प्रेरणा है, जो नारी सशक्तिकरण और समाज सेवा की दिशा में आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा।