गणपति बप्पा मोरया: संत मोरया गोसावी की अद्भुत कथा और उनकी भक्ति का महत्व
गणपति भक्त संत मोरया गोसावी की कहानी

Ganapati Bhakta Sant Morya Gosavi Story
Ganapati Bhakta Sant Morya Gosavi Story
गणपति भक्त संत मोरया गोसावी की कहानी: जब महाराष्ट्र में गणेश उत्सव का माहौल होता है, तो हर जगह 'गणपति बप्पा मोरया' के जयकारे गूंजते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि गणेश जी को 'मोरया' क्यों कहा जाता है? इसका उत्तर पुणे के पिंपरी-चिंचवड़ में स्थित संत मोरया गोसावी के मंदिर में छिपा है।
गणेश भक्तों के बीच 'गणपति बप्पा मोरया' का नारा बहुत प्रसिद्ध है। इसमें 'मोरया' शब्द संत मोरया गोसावी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करता है, जिनकी गणेश के प्रति गहरी भक्ति और योगदान के कारण यह नाम प्रचलित हुआ। संत मोरया गोसावी का जीवन और उनकी गणेश भक्ति की कहानी प्रेरणादायक है।
‘गणपति बप्पा मोरया’ का गहरा अर्थ
‘गणपति बप्पा मोरया’ केवल एक जयकारा नहीं है, बल्कि यह महाराष्ट्र की संत परंपरा और गणपत्य संप्रदाय की गहराई को दर्शाता है, जिसमें संत मोरया गोसावी की तपस्या और श्रद्धा का प्रतीक है।
संत मोरया गोसावी: गणपति उपासना की महान परंपरा
संत मोरया गोसावी 13वीं शताब्दी के एक प्रमुख गणपत्य संप्रदाय के संत थे। इस संप्रदाय में गणेश जी को सृष्टि के सृजनकर्ता और पालनकर्ता के रूप में पूजा जाता था। मोरया गोसावी की गणेश भक्ति की कहानियाँ इतनी प्रसिद्ध हुईं कि महाराष्ट्र के भक्त 'गणपति बप्पा मोरया' कहकर उनका और भगवान गणेश का एक साथ जयकारा करने लगे। यह नारा समय के साथ लोकभाषा और परंपरा का हिस्सा बन गया।

प्रारंभिक जीवन
संत मोरया गोसावी का जन्म 14वीं शताब्दी में कर्नाटक के बीदर जिले के शाली गांव में हुआ। एक अन्य कथा के अनुसार, उनका जन्म महाराष्ट्र के पुणे जिले के मुरगांव (वर्तमान में मोरगांव) में हुआ। वे बचपन से ही भगवान गणेश के प्रति गहरी श्रद्धा रखते थे और नियमित रूप से मयूरेश्वर गणपति मंदिर में पूजा करते थे। उनकी भक्ति इतनी प्रगाढ़ थी कि वे प्रतिदिन या मासिक रूप से लंबी दूरी तय करके भी मंदिर पहुंचते थे। उनके पिता का नाम वामनभट्ट और माता का नाम पार्वतीबाई था। वे मूलतः कर्नाटक के शाली गांव के निवासी थे और मोरगांव तीर्थ यात्रा के दौरान वहीं बस गए थे। उन्होंने अपनी संतान को भगवान गणपति की कृपा मानते हुए नाम रखा—मोरया।

बचपन से ही मोरया अध्यात्म और भक्ति की ओर झुक गए थे। वेदाध्ययन के बाद उन्होंने अपने गुरु योगीराज सिद्ध के निर्देश पर पुणे ज़िले के थेऊर में 42 दिन की कठोर तपस्या की। कहा जाता है कि इस तपस्या के अंत में उन्हें स्वयं गणेश जी के दर्शन हुए।
गुरु से दीक्षा और आध्यात्मिक यात्रा
मोरगांव में गणेश उपासना के दौरान मोरया गोसावी की भेंट नयन भारती नामक एक संत से हुई, जिन्होंने उन्हें नाथ संप्रदाय में दीक्षा दी। नयन भारती ने उन्हें कफनी, रुद्राक्ष की माला और कमंडलु प्रदान किया, जो संन्यासियों के प्रतीक होते हैं। दीक्षा के पश्चात, मोरया गोसावी ने कठोर तपस्या और साधना के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति की।
माता-पिता के निधन के बाद मोरया गोसावी चिंचवड़ आ गए और पवना नदी के किनारे एक आश्रम में रहने लगे। उन्होंने यहां उमा बाई से विवाह किया। उनके जीवन से जुड़े कई चमत्कारी प्रसंग प्रसिद्ध हैं।
एक कथा के अनुसार, एक बार जब वे मोरगांव में दूध लेने गए, तो उन्होंने एक नेत्रहीन लड़की की आंखों की रोशनी लौटा दी। यह भी कहा जाता है कि एक दिन जब वे देर से मोरगांव मंदिर पहुंचे, तो मंदिर के दरवाज़े स्वयं ही खुल गए।
वे हर महीने चिंचवड़ से मोरगांव तक पैदल यात्रा करते थे और गणपति की सेवा में रत रहते थे। उन्होंने सामाजिक कार्यों, विशेष रूप से अन्नदान को बहुत महत्व दिया।
चिंचवड़ में स्थापना
मोरगांव में भक्ति करते समय, एक घटना के अनुसार, गणेश चतुर्थी के अवसर पर मंदिर में भारी भीड़ के कारण मोरया को पूजा करने में कठिनाई हुई। उन्होंने मंदिर के बाहर एक वृक्ष के नीचे अपनी पूजा संपन्न की।

रात्रि में गणेश ने स्वप्न में प्रकट होकर मोरया से कहा कि वे चिंचवड़ में उनके साथ निवास करेंगे। इस संकेत के बाद, मोरया गोसावी चिंचवड़ चले गए और वहां पवना नदी के तट पर गणेश की मूर्ति स्थापित करके एक मंदिर का निर्माण किया।
गणेश प्रतिमा की प्राप्ति और मंदिर की स्थापना
एक बार जब वे करहा नदी में स्नान कर रहे थे, तब उन्हें जल में एक गणपति की प्रतिमा मिली। उन्होंने इस मूर्ति को एक मंदिर में स्थापित किया, जिसे बाद में मंगलमूर्ति वाडा के नाम से जाना गया। उनके पुत्र चिंतामणि ने इस मंदिर का और विस्तार करवाया और बाद में एक अन्य मूर्ति कोठारेश्वर की स्थापना भी यहीं की गई।
संजीवन समाधि और संत परंपरा
मोरया गोसावी ने चिंचवड़ में ही संजीवन समाधि ली। उनके पुत्र चिंतामणि महाराज ने 17वीं शताब्दी में उनकी समाधि के ऊपर एक भव्य गणेश मंदिर बनवाया। कहा जाता है कि प्रसिद्ध संत तुकाराम ने चिंतामणि महाराज को ‘देव’ नाम से संबोधित किया था, और तभी से उनके वंश का उपनाम 'देव' पड़ गया।
इस वंश में अन्य प्रमुख संत हुए—
नारायण महाराज प्रथम
चिंतामणि महाराज द्वितीय
धरणीधर महाराज
नारायण महाराज द्वितीय
चिंतामणि महाराज तृतीय
चिंचवड़ के मंदिर परिसर में इन सभी छह वंशजों की भी समाधियां स्थापित हैं।
औरंगज़ेब और देव परिवार की कथा
पुणे ज़िले के राजपत्र में दर्ज एक प्रसंग के अनुसार, संत नारायण महाराज प्रथम के समय मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब ने एक बार उन्हें परीक्षा में डालते हुए भोजन के साथ मांस भेजा। कहा जाता है कि नारायण महाराज ने उस मांस को चमेली के फूलों में परिवर्तित कर दिया।

इस चमत्कार से प्रभावित होकर औरंगज़ेब ने उन्हें आठ गांव—बाणेर, चिखली, चिंचवड़, मान, चरोली बुद्रुक, चिंचोली और भोसारी—भेंट स्वरूप दिए। आज ये सभी इलाके पुणे के प्रमुख उपनगर हैं।
गृहस्थ जीवन और संतान
गणेश के आदेशानुसार, मोरया गोसावी ने 96 वर्ष की आयु में उमा नामक महिला से विवाह किया। इस विवाह से उन्हें 104 वर्ष की आयु में चिंतामणि नामक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। चिंतामणि को गणेश का अवतार माना गया और उन्हें 'देव' की उपाधि से संबोधित किया गया। चिंतामणि के पश्चात, मोरया गोसावी के वंश में सात पीढ़ियों तक गणेश के अवतार माने जाने वाले 'देव' हुए।
संजीवन समाधि
दीर्घकाल तक भक्ति और सेवा करने के बाद, मोरया गोसावी ने संजीवन समाधि लेने का निर्णय लिया, जिसमें साधक जीवित अवस्था में ही समाधि लेता है। उन्होंने चिंचवड़ में एक गुफा में प्रवेश किया और वहां समाधि ली। उनकी समाधि स्थल पर आज भी भक्तों की भीड़ उमड़ती है, जहां गणेश मंदिर स्थित है।
'गणपति बप्पा मोरया' का उद्गम
मोरया गोसावी की गणेश के प्रति अटूट भक्ति और समर्पण के कारण, भगवान गणेश ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि जब भी उनका नाम लिया जाएगा, मोरया का नाम उसके साथ लिया जाएगा।

तब से 'गणपति बप्पा मोरया' का जयघोष प्रचलित हुआ, जिसमें 'मोरया' शब्द मोरया गोसावी के प्रति सम्मान प्रकट करता है।
सामाजिक और सांस्कृतिक योगदान
मोरया गोसावी ने न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में बल्कि सामाजिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने अन्नदान, यात्राएं और उत्सवों के माध्यम से समाज में सेवा की। चिंचवड़ को गणेश उपासना का प्रमुख केंद्र बनाने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। उनके वंशजों को मराठा शासकों से भूमि और अनुदान प्राप्त हुए, जिससे चिंचवड़ देवस्थान की स्थापना हुई।
गणपत्य संप्रदाय: सनातन धर्म की एक गूढ़ शाखा
गणपत्य संप्रदाय, हिंदू धर्म के पाँच प्रमुख संप्रदायों में से एक है। अन्य चार हैं—
वैष्णव संप्रदाय (भगवान विष्णु के उपासक),
शैव संप्रदाय (भगवान शिव के उपासक),
शाक्त संप्रदाय (देवी शक्ति की उपासना),
सौर संप्रदाय (सूर्य की उपासना)।
गणपति का अर्थ है ‘गणों के स्वामी’ और उनका आरंभिक उल्लेख ऋग्वेद और ऐतरेय ब्राह्मण में भी मिलता है। लेकिन एक संप्रदाय के रूप में गणपत्य परंपरा का विकास लगभग पांचवीं से छठी शताब्दी के बीच माना जाता है।
गणेश को सर्वोच्च देवता मानने वाले इस संप्रदाय ने अनेक उप-परंपराओं और पूजा विधियों का निर्माण किया, जिसमें गणपति के छह प्रमुख रूपों की पूजा की जाती थी
महागणपति
हरिद्रा गणपति
उच्छिष्ट गणपति
नवनीत गणपति
स्वर्ण गणपति
संतान गणपति
इन सभी रूपों की उपासना अलग-अलग विधियों से होती थी और इनके अलग-अलग तांत्रिक और धार्मिक महत्व थे।
संत मोरया गोसावी का जीवन गणेश भक्ति, सेवा और सामाजिक उत्थान का प्रतीक है। उनकी स्मृति में 'गणपति बप्पा मोरया' का जयघोष आज भी भक्तों के बीच गूंजता है, जो उनकी भक्ति और योगदान को सदैव स्मरणीय बनाता है।
यह नारा हमें न केवल भगवान गणेश के प्रति भक्ति की ओर प्रेरित करता है, बल्कि यह भी बताता है कि एक संत का समर्पण किस तरह युगों तक लोगों की आस्था का केंद्र बना रहता है।