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क्या डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने इंडिपेंडेंट फिल्मों के लिए खोले नए दरवाजे?

किरण राव ने धर्मशाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में स्वतंत्र फिल्मों के वितरण की चुनौतियों पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने बताया कि डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने दर्शकों तक पहुंचने में मदद की है, लेकिन थिएटर में फिल्म देखने का अनुभव अब भी खास है। क्या दर्शक इन फिल्मों के लिए पैसे खर्च करने को तैयार हैं? जानें इस महत्वपूर्ण सवाल का उत्तर और स्वतंत्र फिल्मों के भविष्य के बारे में।
 
क्या डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने इंडिपेंडेंट फिल्मों के लिए खोले नए दरवाजे?

किरण राव का इंडिपेंडेंट फिल्मों पर विचार


मुंबई, 3 नवंबर। भारत में स्वतंत्र फिल्मों का सफर हमेशा से ही कठिनाइयों से भरा रहा है। चाहे वह कहानी की गहराई हो या अभिनय की कला, इन फिल्मों को सही दर्शकों तक पहुंचाना अक्सर सबसे बड़ी चुनौती बन जाती है। इस विषय पर फिल्म निर्माता किरण राव ने 14वें धर्मशाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (डीआईएफएफ) में अपने विचार साझा किए।


उन्होंने कहा कि हाल के वर्षों में डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने फिल्मों को व्यापक दर्शकों तक पहुंचाने में मदद की है, लेकिन थिएटर में जाकर फिल्म देखने का अनुभव अब भी विशेष माना जाता है।


किरण राव ने बताया कि फिल्म निर्माण और वितरण में कई महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं, फिर भी अभी भी कई बाधाएं मौजूद हैं।


उन्होंने भारत की आधिकारिक ऑस्कर प्रविष्टि फिल्म 'होमबाउंड' का उल्लेख करते हुए कहा कि दर्शकों का स्वाद पहले की तुलना में काफी बदल गया है।


पहले लोग मुख्यतः बड़े सितारों और पारंपरिक फिल्मों तक सीमित थे, लेकिन अब दर्शक नई कहानियों और अनोखे अंदाज की फिल्मों में भी रुचि दिखा रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण विभिन्न स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स हैं, जो दर्शकों को घर बैठे ही फिल्मों का आनंद लेने का मौका देते हैं। यह बदलाव स्वतंत्र फिल्मों के लिए एक सकारात्मक संकेत है, क्योंकि अब उनकी कहानियों को देखने वाले दर्शकों की संख्या बढ़ रही है।


इस अवसर पर किरण राव ने एक महत्वपूर्ण सवाल भी उठाया, जो स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं के लिए हमेशा चिंता का विषय रहा है। उन्होंने पूछा कि क्या दर्शक इन फिल्मों के लिए पैसे खर्च करने को तैयार हैं। उन्होंने कहा, 'फिल्म निर्माताओं के लिए यह सबसे बड़ा सवाल है। क्या कोई 150 रुपये देकर 'होमबाउंड' या 'सबर बोंडा' जैसी फिल्मों को देखने आएगा? अगर दर्शक नहीं आएंगे, तो फिल्म बनाने का क्या मतलब है?' उन्होंने यह भी कहा कि फिल्म बनाने में समय, पैसा और मेहनत लगती है, और यदि लोग इसे देखने नहीं आएंगे, तो यह सब व्यर्थ हो सकता है।


किरण राव ने बताया कि उन्होंने पिछले एक दशक से स्वतंत्र फिल्मों का समर्थन किया है और कई सफल फिल्मों में कार्यकारी निर्माता के रूप में भी काम किया है। फिल्मों की गुणवत्ता में कोई कमी नहीं है, लेकिन सही दर्शकों तक पहुंचने का रास्ता सबसे बड़ी चुनौती है।


उन्होंने कहा, 'आज फिल्म निर्माताओं के लिए अवसर बढ़ गए हैं और फिल्म बनाने के नए रास्ते खुल गए हैं, लेकिन स्वतंत्र फिल्मों के वितरण में अभी भी एक बड़ा अंतर है। फिल्म तो बन जाती है, लेकिन उसे सही तरीके से थिएटर या प्लेटफॉर्म पर दर्शकों तक पहुंचाना मुश्किल होता है।'


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