भारतीय राजनीति में नैतिकता का संकट: क्या है सुधार की संभावना?
भारतीय राजनीति का विकास
भारतीय राजनीति का चरित्र (सोशल मीडिया से)
भारतीय राजनीति का इतिहास: भारतीय राजनीति ने समय के साथ कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। स्वतंत्रता के बाद, यह उम्मीद की गई थी कि देश की राजनीति महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, सरदार पटेल और डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे महान नेताओं के आदर्शों पर आधारित होगी। लेकिन धीरे-धीरे सत्ता की राजनीति ने एक अलग दिशा ले ली।
नैतिकता में गिरावट की शुरुआत
नैतिक अवसान की प्रारंभिक झलक
स्वतंत्रता के पहले दो दशकों में राजनीति में सेवा और आदर्शवाद का बोलबाला था। नेताओं की साधारण जीवनशैली और सार्वजनिक जीवन की पारदर्शिता ने जनता का विश्वास जीता। लेकिन 1960 के दशक के अंत तक राजनीतिक माहौल में बदलाव आना शुरू हो गया।
• चुनावों में जातीय और सांप्रदायिक समीकरणों का खुला उपयोग बढ़ने लगा।
• सत्ता की प्राप्ति के लिए अवसरवाद को प्राथमिकता दी जाने लगी।
• प्रशासनिक निर्णयों में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ने लगा।
इन प्रवृत्तियों ने भारतीय राजनीति में नैतिक पतन की नींव रख दी।
भ्रष्टाचार और अवसरवाद का बढ़ता प्रभाव
भ्रष्टाचार और अवसरवाद का विस्तार
1970 के दशक में भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल गया। आपातकाल (1975-77) इसका प्रमुख उदाहरण है, जिसने दिखाया कि सत्ता की लालसा में लोकतांत्रिक मूल्यों की कितनी अनदेखी की जा सकती है।
• भ्रष्टाचार अब केवल अपवाद नहीं रहा, बल्कि सामान्य प्रवृत्ति बन गया।
• चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता लगभग समाप्त हो गई।
• प्रशासनिक पदोन्नतियों में राजनीतिक हित प्रमुख हो गए।
इस समय से राजनीति में नैतिकता की अपेक्षा व्यावहारिकता को अधिक महत्व दिया जाने लगा।
समाज पर प्रभाव और राजनीतिक संस्कृति का परिवर्तन
समाज पर प्रभाव और राजनीतिक संस्कृति का परिवर्तन
राजनीतिक नैतिकता में गिरावट का सीधा असर समाज पर पड़ा। जनता ने महसूस किया कि—
1. सत्ता का उद्देश्य सेवा नहीं, बल्कि लाभ कमाना है।
2. कानून और नियम सत्ता के अनुसार बदलते हैं, न कि जनता की भलाई के लिए।
3. आदर्शवाद का स्थान यथार्थवाद ने ले लिया है।
इससे लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था कमजोर हुई और राजनीतिक विमर्श में शिष्टता का क्षरण हुआ।
सुधार की संभावनाएँ
पुनर्निर्माण की संभावनाएँ
हालांकि नैतिक अवसान स्पष्ट है, फिर भी भारतीय राजनीति में सुधार की संभावनाएँ खत्म नहीं हुई हैं।
1. शिक्षा और जनजागरण
यदि नागरिक अधिक सजग और नैतिक दृष्टि से संवेदनशील होंगे, तो वे ऐसे नेताओं का चयन करेंगे जो पारदर्शिता और सेवा को महत्व देते हैं।
2. कानूनी और संस्थागत सुधार
• लोकपाल, लोकायुक्त और सूचना आयोग जैसी संस्थाओं को सशक्त करना।
• चुनावी सुधार कर पारदर्शी फंडिंग और दागी नेताओं पर रोक लगाना।
3. राजनीतिक दलों की आंतरिक लोकतांत्रिकता
यदि दलों के भीतर लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ मजबूत होंगी, तो परिवारवाद, जातिवाद और अवसरवाद पर अंकुश लगेगा।
भारतीय राजनीति में नैतिक अवसान केवल नेताओं या दलों की विफलता नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज की सामूहिक चेतना और अपेक्षाओं से भी जुड़ा हुआ है। जब तक जनता अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजग होकर नैतिक नेतृत्व को महत्व नहीं देगी, तब तक राजनीति में नैतिकता का पुनरुत्थान कठिन रहेगा।
लेकिन इतिहास गवाह है कि भारतीय समाज ने हर संकट के बाद नई ऊर्जा से पुनर्निर्माण किया है। यदि राजनीतिक सुधार, सामाजिक जागरूकता और संस्थागत पारदर्शिता मिलकर काम करें, तो भारतीय राजनीति में एक नई नैतिक शुरुआत संभव है।