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भारत की संस्कृति पर पश्चिम का प्रभाव: क्या है असली सच?

इस लेख में हम भारतीय संस्कृति पर पश्चिम के प्रभाव का गहन विश्लेषण करते हैं। क्या यह प्रभाव वास्तव में संस्कृति पर है या केवल जीवनशैली में बदलाव है? प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. ए. एल. बाशम के विचारों के माध्यम से हम समझते हैं कि भारतीय संस्कृति कितनी लचीली है और कैसे यह बाहरी प्रभावों को आत्मसात करती है। जानें इस विषय पर और भी गहराई से।
 

भारतीय संस्कृति और पश्चिम का प्रभाव

भारतीय संस्कृति: भारत की संस्कृति पर पश्चिमी प्रभाव का विश्लेषण एक जटिल विषय है। इस विषय की गहराई में जाने के लिए, पहले भारत और पश्चिम की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है। इसके बाद ही हम उनके बीच के संबंधों और प्रभावों का विश्लेषण कर सकते हैं। यह प्रश्न हमेशा से विचारणीय रहा है कि जब दो सभ्यताएँ आपस में मिलती हैं, तो क्या एक की संस्कृति दूसरी को प्रभावित कर सकती है, या केवल जीवनशैली में बदलाव आता है? यहाँ यह समझना महत्वपूर्ण है कि संस्कृति मूल है, जबकि सभ्यता उसी का विस्तार है। सभ्यता समय और परिस्थितियों के अनुसार बदल सकती है, लेकिन संस्कृति अपने मूल स्वरूप में स्थायी रहती है।

आज के वैश्विक परिदृश्य में यह धारणा फैलाई जाती है कि एक संस्कृति पर दूसरी का प्रभाव पड़ रहा है। यह आंशिक सत्य है और आंशिक भ्रांति भी। यह भ्रांति मुख्यतः संस्कृति और सभ्यता के बीच के अंतर को न समझ पाने से उत्पन्न होती है। संस्कृति वह आत्मा है, जिससे समाज का निर्माण होता है। इसकी जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि इसका मूल स्वरूप नहीं बदलता। जबकि सभ्यता, जैसे जीवनशैली, रहन-सहन, पहनावा, खान-पान और भाषा आदि, समय के साथ बदलते रहते हैं। इसलिए जब हम कहते हैं कि पश्चिम का भारत पर प्रभाव पड़ा है, तो यह अधिकतर सभ्यता या जीवनशैली पर लागू होता है, संस्कृति पर नहीं।


प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. ए. एल. बाशम, जिन्होंने 'The Wonder That Was India' जैसी महत्वपूर्ण कृति लिखी, अपने ग्रंथ के उपसंहार में इस विषय को स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं—

“आज यूरोपीय और भारतीय संस्कृति की भिन्नता पर चर्चा करना व्यर्थ है। कुछ समय पहले तक संस्कृतियाँ भौगोलिक रूप से अलग थीं, लेकिन अब जब लंदन और न्यूयॉर्क से भारत की दूरी कुछ घंटों की रह गई है, तब सांस्कृतिक अलगाव की बात करना उचित नहीं। यदि उदार लोकतंत्र और समाजवाद में संतुलन बनाते हुए सभ्यता विकसित होगी, तो अंततः विश्व में केवल एक ही वैश्विक संस्कृति होगी, जिसमें अनेक स्थानीय मतभेद और रूपांतरण स्वाभाविक होंगे। भारत का योगदान विश्व सांस्कृतिक कोश में हमेशा महत्वपूर्ण रहा है और समय के साथ यह और बढ़ेगा।”

बाशम का यह कथन हमें एक गहरा संदेश देता है। भारत की संस्कृति इतनी लचीली है कि वह बाहरी प्रभावों को भी अपनी आत्मा में समाहित कर लेती है। उदाहरण के लिए, जब पश्चिमी लड़कियाँ जींस और टी-शर्ट पहनने लगीं, तो भारतीय युवतियों ने भी इसे अपनाया, लेकिन इस अपनाने में भारतीयता की छाप रही—वे जींस-टी शर्ट के साथ बिंदी, कड़े और कभी-कभी पायल भी पहनती रहीं। इस प्रकार उनका रूप पश्चिमी और भारतीय सौंदर्य का सुंदर संगम बन गया। अब पश्चिम भी इस मिश्रित आकर्षण को अपनाने का प्रयास कर रहा है। इसका अर्थ यही है कि हमने बाहरी प्रभावों को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया, बल्कि उन्हें भारतीय परिप्रेक्ष्य में ढाल दिया।

संस्कृति का यही स्वभाव है—वह दूसरों से ग्रहण भी करती है, पर अपनी मूल आत्मा में समाहित कर उन्हें परिवर्तित कर देती है। इसीलिए कहा जा सकता है कि भारत पर पश्चिम का जो प्रभाव दिखाई देता है, वह मूलतः सभ्यता और जीवनशैली तक सीमित है। वस्त्र, भोजन, भाषा और तकनीकी उपयोग में पश्चिम का असर देखा जा सकता है, लेकिन हमारी संस्कृति का आधार—आध्यात्मिक दृष्टि, पारिवारिक मूल्य, उत्सवों की आत्मा और जीवन के प्रति दर्शन—अब भी भारतीय ही है।


वास्तव में, यदि भारत और पश्चिम के सांस्कृतिक संबंधों का गहरा अध्ययन किया जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति पर स्थायी प्रभाव संभव नहीं है, परंतु सभ्यताओं का आदान-प्रदान और जीवनशैली में परिवर्तन अपरिहार्य हैं। यह परिवर्तन समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार होते हैं और इन्हें ही हम सांस्कृतिक प्रभाव समझ बैठते हैं। अतः भारत की संस्कृति आज भी उतनी ही गहरी, जीवंत और व्यापक है, जितनी प्राचीन काल में थी।