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पृथ्वीराज कपूर: भारतीय सिनेमा के पितामह की अनकही कहानी

पृथ्वीराज कपूर, भारतीय सिनेमा के एक महानायक, ने अपने अद्वितीय अभिनय और संवाद अदायगी से फिल्म उद्योग को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। 1906 में जन्मे कपूर ने रंगमंच से अपने करियर की शुरुआत की और मूक फिल्मों से लेकर बोलती फिल्मों तक अपनी पहचान बनाई। उनके संघर्ष और थिएटर को बचाने के लिए किए गए प्रयासों की कहानी प्रेरणादायक है। जानें उनके जीवन के अनकहे किस्से और सिनेमा में उनके योगदान के बारे में।
 

पृथ्वीराज कपूर का अद्वितीय सफर


पृथ्वीराज कपूर का नाम सुनते ही भारतीय सिनेमा की महानता का अहसास होता है। उनकी संवाद अदायगी और अभिनय कौशल ने उन्हें एक अद्वितीय स्थान दिलाया। यह कहानी है उस अभिनेता की, जिसने अपने अभिनय से फिल्म उद्योग को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। 3 नवंबर, 1906 को अविभाजित भारत के पंजाब (वर्तमान में फ़ैसलाबाद, पाकिस्तान) में जन्मे पृथ्वीराज कपूर को बचपन से ही अभिनय का गहरा लगाव था। जब वह बंबई (अब मुंबई) पहुँचे, तो उन्होंने जल्दी ही सहायक भूमिकाओं से मुख्य भूमिकाओं की ओर कदम बढ़ाया।


पृथ्वीराज कपूर ने मूक फिल्मों के युग में भी अपनी पहचान बनाई और छोटी भूमिकाओं में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। उन्होंने रंगमंच से अपने करियर की शुरुआत की। चाहे उनकी पहली बोलती फिल्म "आलम आरा" हो या के.एल. सहगल के साथ "प्रेसिडेंट" और "दुश्मन", पृथ्वीराज कपूर हमेशा अपनी अनोखी शैली और गहरी आवाज़ के लिए जाने जाते थे। उनके चाहने वाले उन्हें "पापाजी" कहकर बुलाते थे, क्योंकि वे हमेशा दूसरों की मदद के लिए तत्पर रहते थे।


हालांकि, उनके जीवन में एक दिलचस्प किस्सा भी है जब वे थिएटर के बाहर एक थैले के साथ खड़े रहते थे। 1944 में उन्होंने पृथ्वी थिएटर्स की स्थापना की। इस सफर में उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने थिएटर को बचाने के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया।


उनकी आय इतनी कम थी कि वह अपने परिवार का भरण-पोषण नहीं कर पा रहे थे। जो भी पैसा वे कमाते थे, वह थिएटर के संचालन में चला जाता था। कठिनाइयों के बावजूद, पृथ्वीराज ने एक फकीर का थैला उठाया और जब लोग शो देखकर निकलते, तो वे उसमें पैसे डालने के लिए खड़े रहते। यह किस्सा अखबारों में भी छपा।


पृथ्वी थिएटर्स ने 1960 तक 16 वर्षों तक कार्य किया, जिसमें 5,982 दिनों में 2,662 शो हुए। पृथ्वीराज कपूर हर शो में मुख्य भूमिका निभाते थे, औसतन हर तीन दिन में एक शो। लेकिन 1960 में उनकी स्वास्थ्य समस्याओं के कारण इस शो को बंद करना पड़ा। 29 मई, 1971 को उनका निधन हो गया। 1972 में, उन्हें सिनेमा और रंगमंच में उनके योगदान के लिए मरणोपरांत दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा, उन्हें 1954 और 1956 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 1969 में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण पुरस्कार भी मिल चुका था।