गेहूँ का सफर: प्राचीन फसलों से लेकर आधुनिक स्वास्थ्य विवादों तक
गेहूँ का ऐतिहासिक महत्व
गेहूँ का इतिहास और उसके स्वास्थ्य पर प्रभाव
गेहूँ का इतिहास और उसके स्वास्थ्य पर प्रभावगेहूँ का इतिहास: गेहूँ मानव सभ्यता की उन प्राचीन फसलों में से एक है, जिसके बिना कृषि और स्थायी समाज की कल्पना करना कठिन है। इसकी उत्पत्ति लगभग 10,000 से 12,000 वर्ष पहले “फर्टाइल क्रिसेंट” क्षेत्र में हुई, जो आज के इराक, सीरिया, तुर्की, ईरान और लेवेंट के हिस्सों में फैला था। वहाँ की जंगली प्रजातियाँ जैसे ऐनकोर्न और एमर को धीरे-धीरे खेती के लिए पालतू बनाया गया। यह फसल मिस्र, मेसोपोटामिया और भूमध्यसागरीय देशों में फैली। प्रारंभिक कृषि सभ्यता के साक्ष्य मंदिरों, मुहरों और पुरातात्त्विक अवशेषों में गेहूँ की कटाई और भंडारण के दृश्य के रूप में मिलते हैं।
भारत में गेहूँ की प्राचीनता
भारत में गेहूँ की उपस्थिति भी बहुत पुरानी है। वैदिक साहित्य में इसे ‘गोधूम’ के नाम से जाना जाता है। पुरातात्त्विक प्रमाण मेहरगढ़ (जो अब पाकिस्तान के बलूचिस्तान में है) से लगभग 7000–6000 ईसा पूर्व के मिले हैं। हड़प्पा सभ्यता के उत्खनन में भी गेहूँ के दानों के जीवाश्म मिले हैं, जो दर्शाते हैं कि सिंधु-घाटी के लोग इसे एक प्रमुख अन्न के रूप में उपयोग करते थे। पारंपरिक भारतीय किस्में, जिन्हें ‘खापली’ या ‘देशी गेहूँ’ कहा जाता है, पौष्टिक और पचने में आसान थीं, हालांकि इनकी उपज आधुनिक किस्मों की तुलना में कम थी.
स्वतंत्र भारत में गेहूँ का उत्पादन
PL-480 का दौर और हरित क्रांति
स्वतंत्रता से पहले भारत में गेहूँ का उत्पादन सीमित था। 1947 में यह लगभग 65 लाख टन था, जो जनसंख्या की आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त था। 1950 के दशक में सूखे और अकाल के कारण भारत को अमेरिका से गेहूँ आयात करना पड़ा। यह Public Law 480 (PL-480) के तहत हुआ, जो 1954 में अमेरिकी कांग्रेस द्वारा पारित एक योजना थी। भारत ने 1956 से इस योजना के तहत बड़े पैमाने पर गेहूँ आयात किया।
हालांकि इससे तत्काल खाद्यान्न संकट टल गया, दीर्घकालिक समाधान आत्मनिर्भरता में देखा गया। इसी पृष्ठभूमि में हरित क्रांति का आरंभ हुआ। 1960 के दशक में डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन और अन्य के प्रयासों से उच्च उपज देने वाली किस्में भारत में लाई गईं।
गेहूँ की रासायनिक संरचना
पोषण तत्व और स्वास्थ्य लाभ
रासायनिक दृष्टि से गेहूँ एक संतुलित अन्न है। इसमें लगभग 70–75% कार्बोहाइड्रेट, 10–15% प्रोटीन, 1.5–2% वसा, और 2–3% फाइबर होते हैं। इसके साथ ही इसमें सूक्ष्म मात्रा में विटामिन-B समूह, आयरन, जिंक, मैग्नीशियम, और फॉस्फोरस भी पाए जाते हैं।
संपूर्ण गेहूँ में चोकर और जर्म सहित सभी हिस्से बने रहते हैं, जिससे यह फाइबर और पोषक तत्वों से भरपूर होता है। गेहूँ के प्रमुख लाभों में ऊर्जा का स्थायी स्रोत होना और पाचन में सहायक रेशा शामिल हैं।
आधुनिक स्वास्थ्य विवाद
Wheat Belly का तर्क
20वीं सदी के मध्य से विकसित बौनी और संकर किस्मों ने गेहूँ की जैव-रासायनिक प्रकृति में परिवर्तन किया है। कई अध्ययनों में पाया गया कि ग्लियाडिन जैसे प्रोटीन कुछ व्यक्तियों में सीलिएक रोग और आंतों की सूजन को बढ़ा सकते हैं। अमेरिकी कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. विलियम डेविस ने अपनी पुस्तक “Wheat Belly” में बताया कि आधुनिक गेहूँ अब केवल पोषण का स्रोत नहीं, बल्कि मेटाबॉलिक विकारों का कारण बन गया है।
उनका तर्क है कि आधुनिक गेहूँ में मौजूद Amylopectin-A तेजी से ग्लूकोज में टूटता है, जिससे इंसुलिन का स्तर बढ़ता है और वसा संचय होता है।
भारत और विश्व में गेहूँ का वर्तमान परिदृश्य
गेहूँ की खेती का भविष्य
आज भारत और चीन विश्व के सबसे बड़े गेहूँ उत्पादक देश हैं। भारत में गेहूँ मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उगाया जाता है। अब नई चिंता यह है कि “गेहूँ कितना” नहीं, बल्कि “कैसा गेहूँ” उगाया जाए। वैज्ञानिक और किसान पारंपरिक किस्मों और जैविक खेती की ओर लौटने की सिफारिश कर रहे हैं।
गेहूँ की यात्रा — फर्टाइल क्रिसेंट से लेकर मेहरगढ़ तक, PL-480 की अमेरिकी मदद से लेकर PL-40 और हरित क्रांति तक — मानव सभ्यता के इतिहास की सबसे परिवर्तनकारी यात्राओं में से एक है।
संतुलन का महत्व
स्वास्थ्य के लिए गेहूँ का सही सेवन
गेहूँ तब तक स्वास्थ्य का स्रोत है जब तक इसे प्राकृतिक, सीमित और संतुलित मात्रा में सेवन किया जाए। अत्यधिक, परिष्कृत और आनुवंशिक रूप से बदला गेहूँ स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है।
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